जानती हूँ मैं....
न मुझमें लिबास का सलीका
न कुछ कहने की तहजीब
न ही समझूँ मैं मन तुम्हारे
क्यों कहते हो पहाडिन.....?
पर फिर भी
रूक जाते हैं मेरी एक धाद से
उस जंगल के लता वृक्ष
खिल उठते हैं मेरी आहट से
वो पहाड़ों की दीवारें गूँज
उठती हैं मेरी अनुगूंज से
चांदनी ही बन जाती है साथी
जब उलझ जाती हूँ कभी
इन सुरम्य घाटियों में
हाँ .... हूँ मै पहाडिन ....!!!
[धाद-पुकारना ]