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शनिवार, 17 मार्च 2012

और मैं ...

वो विस्तार बढ़ाते गए
कदम -कदम पर 
और मैं शब्द अपने 
संक्षिप्त करते गयी


ना चुभे मेरे सवालों के
तीर तेरे जेहन में      
 मैं  खुद ही धार अपनी
कुंद करती गयी 


क्या संबंधों  का ख़ारिज
होना नहीं सताता  तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..


वो परवाज कहती है
आ चल अब लौट चले
पर मैं ही अपने पंखों 
पर सिमटती रही


वो कहते है उम्र को
सिसकियों में ना बांध
क्या जाने..
मैं क्यूँ, कब, कैसे
बिखरते गयी...      


 

बुधवार, 7 मार्च 2012

फागोत्सव की ढेरों शुकानायें