फ़ॉलोअर

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

ओह...

अजीब खरी- खरी 
पथरीली सी जिन्दगी
हम अपना काव्यांश
ढूँढते रह गए..
जाने कब शुरू कब 
ख़त्म हुई कहानी
हम मध्यांश
ढूँढते रह गए..
ओह...
कितने सलीके से पूछ गए
कैसा रहा सफ़र
और हम अपना सारांश 
 ढूँढते रह गए. 

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

पहाड़ और नारी

एक सा है जीवन
पहाड़ और नारी का 
कभी सुन्दर,कभी नीरस
कभी खिला, कभी उजड़ा

कुछ सख्त मन एक समान
कितना कुछ समेटे हुए
कुछ सीमायें हैं दोनों की
समान अस्तित्व की लकीरें

हर कठोर प्रहार सह लें 
हर अपनत्व को पहचान लें
पर टूटे जब दोनों
बिखर जाएँ कण-कण में

अपने से बाहर निकल आओ
थमकर,एकटक  देखकर
पहचान लो जरा क्या है ये
पहाड़ और....और नारी....!  

      
 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

उफ़

उफ़ ..
कितना अभिमान है मुझे
अपने इन सुलझे धागों पर 

जिन्हें पल पल गाँठ पे गाँठ 
पर सुलझाया है 
कुछ सीधा सा डोर 
दिखता है अब दूर से 
सिमटा हुआ सा 
महसूस होता है ये दायरा..

पर अब अंत में 
ये अजीब सी थकान कैसी...???