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रविवार, 16 मई 2021

क्षणिका

हां 
सच है 
देहरी पार की मैंने 
वर्जनाओं की
रुढ़िवाद की 
पाखंड की
कुंठा की ....

ओह
सभ्य समाज ....!
तुम्हारी ओर से 
सिर्फ घृणा .?

कहो
इतने नाजुक कब से हो लिए?
किसी स्त्री के प्रति...??


सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

कांच के टुकड़े

सुनो 
मेरे पास कुछ
कांच के टुकड़े हैं
पर उनमें 
प्रतिबिंब नहीं दिखता
पर कभी 
फीका महसूस हो 
तो उन्हें धूप में 
रंग देती हूं
 
चमक तीक्ष्ण हो जाते
तो दुबारा 
परतों में दफ्न 
कर देती हूं 

पर ये
निरंतरता उबाती है
कभी कहीं
शायद वो टुकड़े
गहरे पानी में डूबो आऊ

बताओ
क्या वो कांच 
तुम भी 
बनना चाहोगे ..???
  .. आशा बिष्ट