सुनो
मेरे पास कुछ
कांच के टुकड़े हैं
पर उनमें
प्रतिबिंब नहीं दिखता
पर कभी
फीका महसूस हो
तो उन्हें धूप में
रंग देती हूं
चमक तीक्ष्ण हो जाते
तो दुबारा
परतों में दफ्न
कर देती हूं
पर ये
निरंतरता उबाती है
कभी कहीं
शायद वो टुकड़े
गहरे पानी में डूबो आऊ
बताओ
क्या वो कांच
तुम भी
बनना चाहोगे ..???
.. आशा बिष्ट
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 18 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-02-2020) को "नीम की छाँव" (चर्चा अंक-3616) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लेखनी में एक गहराई है, जो विरले ही दिखती है। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया ।
जवाब देंहटाएंकांच के टुकड़ों में प्यार का दृश्य ... वाह आशा जी
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय
जवाब देंहटाएंबेहद गहराई लिए रचना,,, बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबातों को यूं शब्द देना आपकी कलम ही कर सकती है ..आभार
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