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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

शब्द..

बीती शाम जलते दीयों से पूछा
जलोगे तुम...बुझोगे तुम...
फिर क्यूँ ये सब??
वो मुस्कुराये फिर बोले
थमना ...तुम क्या जानो
जल कर बुझना
तुम क्या जानो...!!

11 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर. जलनेवाला ही जानता है जलने और पुनः बुझने का आनंद. एक दूसरा नज़रिया देखने का यह भी है की जीवन अगर जलना हो तो बुझना उससे मुक्ति है परमानंद के लिए. सुन्दर कृति.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (30-11-2013) को "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" : चर्चामंच : चर्चा अंक : 1447 में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. जलने और बुझने के इसी क्रम में जीवन चलता जाता है |

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  4. कुछ कर के जाने का एहसास साथ हो तो उम्र भर का सकून मिल जाता है ...
    सार्थक प्रस्तुति ...

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  5. वाह...उत्तम...इस प्रस्तुति के लिये आप को बहुत बहुत धन्यवाद...

    नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी

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