वो विस्तार बढ़ाते गए
संक्षिप्त करते गयी
ना चुभे मेरे सवालों के
तीर तेरे जेहन में
मैं खुद ही धार अपनी
कुंद करती गयी
क्या संबंधों का ख़ारिज
होना नहीं सताता तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..
वो परवाज कहती है
आ चल अब लौट चले
पर मैं ही अपने पंखों
पर सिमटती रही
वो कहते है उम्र को
सिसकियों में ना बांध
क्या जाने..
मैं क्यूँ, कब, कैसे
बिखरते गयी...
कदम -कदम पर
और मैं शब्द अपने संक्षिप्त करते गयी
ना चुभे मेरे सवालों के
तीर तेरे जेहन में
मैं खुद ही धार अपनी
कुंद करती गयी
क्या संबंधों का ख़ारिज
होना नहीं सताता तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..
वो परवाज कहती है
आ चल अब लौट चले
पर मैं ही अपने पंखों
पर सिमटती रही
वो कहते है उम्र को
सिसकियों में ना बांध
क्या जाने..
मैं क्यूँ, कब, कैसे
बिखरते गयी...
very touching.
जवाब देंहटाएंवाह!!
जवाब देंहटाएंबहुत भावुक रचना ....
वो कहते है उम्र को
सिसकियों में ना बंद....यहाँ क्या टंकण त्रुटि है??? सिसकियों में ना बाँध होना था क्या??
अन्यथा ना लें...
सदर.
dhnywaad.... aur sachet karne ke liye abhar..
जवाब देंहटाएंभावो की बहुत नाजुक अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंभाव विभोर करती बेहद सुन्दर रचना:-)
bhaav purn rachna... sundar.
जवाब देंहटाएंभावो की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंक्या संबंधों का ख़ारिज
जवाब देंहटाएंहोना नहीं सताता तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..
बड़े ही गूढ़ भाव ....
बहुत बहुत धन्यवाद रश्मि जी ...आपकी टिप्पणी नई उर्जा का संचार करती है..
हटाएंभावुक ||
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ||
आपकी उपस्थिति ने मेरे ब्लॉग की गरिमा बढाई है...
हटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवो परवाज कहती है
जवाब देंहटाएंआ चल अब लौट चले
पर मैं ही अपने पंखों
को सिमटती रही...
शब्दों को सुन्दरतापूर्ण ढंग से पिरोकर भावमय कविता बनाना आपकी खूबी है. यह कविता भी अभिव्यक्ति को नया आयाम देने की आपकी शैली की परिचायक है. आभार !
ऊपर जो आपने लिखा है कि
"....पर मैं ही अपने पंखों को सिमटती रही... "
क्या ऐसा ही लिखा जाना था ? मेरे ख्याल से इसे
"...पर मैं ही अपने पंखों को समेटती रही...."
या फिर "....मै ही अपने पंखों पर सिमटती रही..." लिखा जाना था.
SIR..आपका हार्दिक आभार...एवं वर्तनी सम्बन्धी शुद्धता हेतु सचेत करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद... आगे भी आपके मार्गदर्शन की इच्छुक रहूंगी .....'.को ' को 'पर'करने पर शायद मेरी पंक्तियों का तात्पर्य बढ़ जाए..
हटाएंvah ! bahut sunder rachna.
जवाब देंहटाएंआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
जवाब देंहटाएंवाह...बहुत सार्थक रचना..शब्द शब्द बाँध लेता है ...बधाई स्वीकारें
नीरज
aah!! aapki kalaatmakta ne vibhor kar diya!!!
जवाब देंहटाएंtyping errors google translator ke kaaran aksar ho jati hain
par isse kavita ke bhaav par fark nahi pada
ye kavita shayad har mahila ke man me kabhi na kabhi apna ghar banaati hi hai.badhai!!!
आशा जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
वो कहते है उम्र को
सिसकियों में ना बांध
क्या जाने..
मैं क्यूँ, कब, कैसे
बिखरते गयी...
.......इस उत्कृष्ट रचना के लिए ... बधाई स्वीकारें.
आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
जवाब देंहटाएंना चुभे मेरे सवालों के
जवाब देंहटाएंतीर तेरे जेहन में
मैं खुद ही धार अपनी
कुंद करती गयी
SUNDAR
पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
जवाब देंहटाएंइस मार्मिक रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
नीरज
बहुत सुन्दर लिखा आप ने,मेरे ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित है
जवाब देंहटाएंसच्चे दिल की चाहत ऐसी ही होती है . अति सुन्दर लिखा है..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको ... !
क्या संबंधों का ख़ारिज
जवाब देंहटाएंहोना नहीं सताता तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..
क्यों हमेशा एक औरत ही संबंधों को सहजने में जुटी रहती है .....मर्मस्पर्शी रचना
बहुत शानदार .
जवाब देंहटाएंक्या संबंधों का ख़ारिज
जवाब देंहटाएंहोना नहीं सताता तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..
बड़ी ही भाव प्रवण रचना, वाह !!!!!
रचना के गहरे भाव मन को छू गए. नमन.
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा रचना है ,बधाई आप को
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना, बधाई.
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