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सोमवार, 19 नवंबर 2012

खोजती हूँ ..

इन तहों में 
ख़ामोशी क्यूँ इतनी 
मैं तो सिर्फ  
मेरे होने को खोजती हूँ ..

दो दरवाजों के पीछे 
हंसा क्यूँ मन इतना 
भीड़ में गूंज है कहाँ ...?
खोजती हूँ ...

तेरे होने से 
ठहराव है मुझमे 
पर इश्क है कहाँ ...?
खोजती हूँ ... 

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

आधे अधूरे ..( 2)

 
1.
वो ख्वाहिशें तमाम
  अपनी  ही थी
जो खाक कर गई
 हमें पूरी होने से पहले ..

2.
कितनी फितरतों ने साथ छोड़ा
लम्हों ने हर मोड़ पर मुंह मोड़ा
अब तो हर गाँठ   नजर आती है
की कितनी बार हमने खुद को जोड़ा ...

3.
ये लिखे शब्द वही जुबां है 
जो तुझे देखकर चुप हो जाती है ...!!

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

अपर्णा

मेरी शाख  मुझसे
कहती है
क्या मेरा वजूद तुझसे है??
यदि हाँ .. तो
रंग क्यूँ है फीका ...


मेरी जड़े टिकाये मुझे
अदृश्य रह कर भी
संभाले  अलसाए
अस्तित्व को ....

और मैं
मुझसे ना शाख को
समझाया जा सका
ना जड़ें फैलाई
जा सकी ... 

बुधवार, 26 सितंबर 2012

मेरी कविता

आज के ही दिन पिछले वर्ष अपने भ्रमित शब्दों को यहाँ पर उकेर दिया था।सौभाग्य वश काफी स्नेह की प्राप्ति हुई।। पुनश्च वही पंक्तिया प्रस्तुत कर रही हूँ ...





कितनी सादगी से टूटा
ये निर्मम दर्पण मेरा
ना टूटने की आवाज हुई
ना कोई दर्द हुआ ...

पर टूट चूका
हर कोना
हर परत ....
बिखर कर मेरे सामने
भले ही ना आया हो
पर टूट चूका
निर्मम दर्पण मेरा ....!!!                                            

सोमवार, 27 अगस्त 2012

एक पेज ...

तेरी  वफाओं के चर्चे किये जब 
देर दिन तक दिया जलता रहा ..

कुछ अश्क बहे,कुछ ठहाके उठे 
देख हंसी उनकी, दिल मुस्कुराता रहा..

ये लौ क्यूँ चिराग की हंसती है मुझपर?
जबकि जिस्म उसका पिघलता रहा।.

खाक मिलाती रही तेरी बेवफाई को मैं 
तेरी चंद वफाओं पर मुझे फख्र होता रहा ...!!!

शनिवार, 25 अगस्त 2012

दोषी कौन ???

दोषी कौन ???
सावन है तो रूमानियत भरा ...पर इस बार ये रूमानियत कब दर्द में बदल गयी इसकी खबर ही नहीं लगी ..
कुछ तस्वीरें साझा करना चाहती हूँ ..


      क्या ये अनियमित बांध ???

मन तो डूबा ही डूबा मन को बंधने वाले केंद्र भी डूबे(धारी मंदिर )।..Add caption
 उफनती नदी गहराता ह्रदय ...Add caption
या फिर अनियंत्रित निर्माण ?Add caption
आखिर दोष किसका? Add caption
 .                                         बस रह गए ये जाते पदचिन्ह ...
ये सभी चित्र उत्तराखंड के चमोली एवं उत्तरकाशी जिले की हैं जो इस बार प्राकृतिक आपदा से प्रभावित हुए हैं।..

शनिवार, 11 अगस्त 2012

दीवारें

मेरे घर की दीवारें
बदरंग न   हो कभी
बदला है रंग इनका
मेरे सुर के साथ ..

खामोश हैं मुझसे ज्यादा
कभी बोल जाती हैं
ना पूछो फिर भी ...

प्रतिबिम्ब मेरा प्रतिमान मेरा
प्रतिरूप मेरा है...
मेरे घर की दीवारें ...!!!

सोमवार, 2 जुलाई 2012

शब्द

खोज लिया
निरुत्तर
प्रश्न
मैं कौन?
रेखाएं
कहती गई
तस्वीरें
सारी ..
पर
अस्तित्व
कहाँ ??
तू मेरा
और मैं
तेरा
जलती लौ
संग
भड़कता
गया
ये
उद्वेलित
उत्तर ...!!! 

सोमवार, 28 मई 2012

मैं और मेरा ...

मैं और मेरा संसार 
अपूर्ण मेरी तरह 
किस्म-किस्म के कायदे 
तरह तरह की सीमायें 

घेरों का शोर 
टूटे तो तकलीफ 
न टूटे तो 
दम घुटता है ...

मैं और मेरा प्यार 
मेरी तरह निर्लज्ज 
पल -पल बिखरता 
क्षण-क्षण बंधता 

कह दूं तो 
फिर  तमाशा
छुपाऊ तो 
दम  तोड़ता है...!!!
 

शुक्रवार, 4 मई 2012

...???

स्वयं से जोड़ा 
कुछ कुरेदा, कुछ तराशा 
फिर बदली है क्यूँ?
मेरी ही अनुकृति 

संशय है 
पथ ये तो ना था 
राह बदली है..?
या बदली  
मेरी ही प्रकृति 

अबोला समझ लिया 
शब्दश: ...........पर 
न स्वीकार सकी 
मौन स्वीकृति 

स्तब्धता लिए 
निशब्द हूँ 
क्यूँ ...?
निरंतर बदलती है 
तुम्हारी प्रवृति ...!!!

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

कुछ और ...

मन बैचेन है कभी कभी कविताओं से भटक जाता है....विषम पर्वतीय परिस्थितिया जीना सीखा देती है 
उनमें से कुछ प्रेरणा स्रोत  ये भी हैं...
(ब्रह्मकमल)
                                                           पंखुड़ियों में रंग 
                                     साधारण ही सही 
                                      पर सीखा ही देते हैं
                                    निष्ठुर परिस्थितियों 
                                      में सृजन .... 
(बुरांश)
                                                            रंग तुम्हारा 
                                      जीने की सीख देता है
                                      समर्पण सम्पूर्णता से
                                      भले ही... 
                               संसार हो सुनसान,निर्जन ..
(बुरांश और  फ्यूंली)
                                                      पहाड़ी लोककथाएं
                                   अपूर्ण हैं तुमसे
                                   तुम्हारे त्याग बलिदान को
                                   शत-शत नमन.... 

 {{{ब्रह्मकमल ऊचाई पर पायी जानी वाली वनस्पति है...और जब बुरांश जंगलों में खिलाता है है तो ऐसा प्रतीत
   होता है की प्रकृति संवाद कर रही हो......फ्यूंली बसंतागमन का संकेत .......}}}
          
 

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

बेवजह ...

शुरुआत का पता मुझे
अंत की खबर भी
फिर भी बैचेन हूँ
बेवजह...

हाथों की लकीरें 
रंगी हैं तमाम रंगों से
फिर भी कुछ रंग 
तलाशती हूँ
बेवजह...

डोर ही डोर
उन्हें थामे मैं ही मैं
हवा का रुख भी मेरी ओर
फिर भी हूक ये क्यूँ
बेवजह...

तू तो पास ही मेरे
और हमराह भी
फिर तुझे क्यूँ ढूँढती हूँ
बेवजह...!!!
   
   

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

प्रश्न

घुटन तो होती है 
दफन होने  में
पर परत-परत दफन होना...?

आखिर क्यूँ ना मिलती
मेरे मन की परिभाषाएं 
तुम्हारे मन से...??

और क्यूँ हर
बात के बाद
एक संतुलित 
मानसिक  अंत...??? 
    

शनिवार, 17 मार्च 2012

और मैं ...

वो विस्तार बढ़ाते गए
कदम -कदम पर 
और मैं शब्द अपने 
संक्षिप्त करते गयी


ना चुभे मेरे सवालों के
तीर तेरे जेहन में      
 मैं  खुद ही धार अपनी
कुंद करती गयी 


क्या संबंधों  का ख़ारिज
होना नहीं सताता  तुम्हें .?
सोचकर.. स्वयं में
ही मैं घुलती रही..


वो परवाज कहती है
आ चल अब लौट चले
पर मैं ही अपने पंखों 
पर सिमटती रही


वो कहते है उम्र को
सिसकियों में ना बांध
क्या जाने..
मैं क्यूँ, कब, कैसे
बिखरते गयी...      


 

बुधवार, 7 मार्च 2012

फागोत्सव की ढेरों शुकानायें

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

ओह...

अजीब खरी- खरी 
पथरीली सी जिन्दगी
हम अपना काव्यांश
ढूँढते रह गए..
जाने कब शुरू कब 
ख़त्म हुई कहानी
हम मध्यांश
ढूँढते रह गए..
ओह...
कितने सलीके से पूछ गए
कैसा रहा सफ़र
और हम अपना सारांश 
 ढूँढते रह गए. 

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

पहाड़ और नारी

एक सा है जीवन
पहाड़ और नारी का 
कभी सुन्दर,कभी नीरस
कभी खिला, कभी उजड़ा

कुछ सख्त मन एक समान
कितना कुछ समेटे हुए
कुछ सीमायें हैं दोनों की
समान अस्तित्व की लकीरें

हर कठोर प्रहार सह लें 
हर अपनत्व को पहचान लें
पर टूटे जब दोनों
बिखर जाएँ कण-कण में

अपने से बाहर निकल आओ
थमकर,एकटक  देखकर
पहचान लो जरा क्या है ये
पहाड़ और....और नारी....!  

      
 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

उफ़

उफ़ ..
कितना अभिमान है मुझे
अपने इन सुलझे धागों पर 

जिन्हें पल पल गाँठ पे गाँठ 
पर सुलझाया है 
कुछ सीधा सा डोर 
दिखता है अब दूर से 
सिमटा हुआ सा 
महसूस होता है ये दायरा..

पर अब अंत में 
ये अजीब सी थकान कैसी...??? 

रविवार, 29 जनवरी 2012

इस बहाने

आज उत्तराखंड में चुनावी दिन है.और पलायन यहाँ की सबसे बड़ी समस्या है .इसी बहाने ना जाने मेरे मन में ये पंक्तियाँ आ रही हैं जिन्हें मैं आपके साथ साझा कर रही हूँ ....


''इस चौखट पर हलचल होगी
ये दरवाजे चरमराएंगे आज
क्यूँ मन मेरा खुश होता है 
कि तुम आओगे इस बार..

मैं तो पदचिन्ह पर ही 
पैर रख पाती हूँ
उस गिने चुने रास्ते पर 
ही धीमे धीमे चला करती हूँ..

ये घास उखड़ेगी आँगन की
ये ताले खुलेंगे मन के
गाँव में त्यौहार होगा शायद
इस बार वोट के बहाने..

पर ना तीज त्यौहार
ना लोकतंत्र के बस की 
लाख कोशिशें हो जाए पर
ना बदल सका मन तुम्हारा..!! 




 




शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

हल्की सी सिहरन लिए
जी उठता है जब कोई ख्वाब
कुछ कर्कश सा क्या..
सुनाई देता है हर और
और फिर....
छा जाता  है नितांत
गुमसुम सा 
बोलता सन्नाटा....!

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

कुछ टूटा

कुछ टूटा फिर से..
 ना जाने क्या था 
क्या बुना था धीरे-धीरे
मन ने सोच कर तुम्हें
दर्द था,निकल आया
रोके से ना रुका....बस
बहता गया तमाम सिलवटें लिए...!

आये वो कुरेदने
तीखे- तीखे शब्दों से
मन था मेरा संभल गया
टूटना था जिसे जार-जार 
वो टूट गया...!!!!
  

रविवार, 1 जनवरी 2012

पर.

"कुछ अनकही सुनूँ 
कह डालूं सब कुछ 
बिखेर दूं 
लम्हा-लम्हा"
पर 
कितना मुश्किल है 
फिर से ख्वाब सजाना..

भीतर उठा गुबार
थम चुका अब
जीत चुकी मैं 
पर 
कितना मुश्किल है 
अपने अंतर्द्वंद से लड़ना ..!