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गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

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याद है अब तक
वो बचपन में पूजा जाना
वो पैर धुलना
माथे पर टीका चुनर
इस घर से उस घर
अपने सिक्के सँभालते
मन थमते नही थमता था

कितना अजीब है
अर्थ समझ आते गए
उम्र के साथ साथ
और ह्रदय गहराता गया ....!!!

15 टिप्‍पणियां:

  1. सच्ची.........
    कौन कितनी जगह आमंत्रित है ये बड़ा मान का विषय होता था....
    बहुत सुन्दर याद!!!

    अनु

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  2. सही कहा आपने..... बचपन की यादें....

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  3. बचपन की यादों को ताजा किया आशा जी। आज हमारे पास कितना भी हो, कुछ भी हो पर बचपन के त्यौहार और खुशियों के साथ उसकी बराबरी नहीं हो सकती। पिताजी द्वारा दिए गए चंद सिक्कों की चमक और खनखनाहट हिरों से ज्यादा होती है।

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  4. अर्थ समझ आते गए और हृदय गहराता गया

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  5. बचपन में हुआ सम्‍मान
    बड़े होकर हैं परेशान

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  6. सुन्दर कविता |आशा जी आभार
    मेरे ब्लॉग सुनहरी कलम से पर पढ़ें वीरेन डंगवाल की कविताएँ |
    www.sunaharikalamse.blogspot.com

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  7. कितना अजीब है
    अर्थ समझ आते गए
    उम्र के साथ साथ
    ......बचपन की यादों को ताजा किया ...बहुत सुन्दर काव्य

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  8. कन्या-पूजन एक बहुत ही प्यारी परंपरा रही है
    और कोई भी बच्ची जब बड़ी होती है तब उसे उसका मह्त्व पता चलता है
    बहुत ही सुन्दर !!

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  9. परम्पराओं का गहरा अर्थ था उन दिनों ... पर आज समाज की श्तिती देख के डर लगने लगा है ...

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  10. चाँद में परियों वाले दिन और यादें ... इतनी आसानी से मुक्त कैसे होंगी ???

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  11. bahut sundar rachna...aakhiri panktiyan batati hain ki vo sab dhakosle the, sachchhai kuchh aur hi hai!!

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