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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

Meri pahli kavita. 02/04/2002 at Srinagar Garhwal Uttarakhand

मृत्यु  की छाया निकट है 
मोह की माया विकट  है 
मोह त्याग स्वीकार कर लो 
मनुष्य जिसे कहता है मृत्यु ..

अथक चाल भरकर तुम 
अडिग वेग  लेकर तुम 
ले चलो उस और 
मनुष्य जिधर जाने से डरता..


आत्मा की चीत्कार सुन
 स्वार्थ का ताना न बुन 
 तोड़ दे अवरोध सारे   
 बने  है जो तुम्हें सोचकर...


निज तन, निज धन के लिए
निज ज्ञान,अपमान के लिए
न विलम्ब कर क्षण भर का 
सोच कर उनका क्या होगा...


वे मुर्ख ऐसे न,जैसे तुम
वे ज्ञानी ऐसे,जैसे न तुम
करें सब कुछ समझ कर
जांचकर,और कुछ परखकर..

ये प्रण कर लो मन में
चल पड़े हम जिस ओर 
न कोई बाधक बने
न जाने,न समझे...


              वो ही है एक शांतिदायक 
               मनुष्य जिसे कहता है मृत्यु.....!!!!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपने मेरे आग्रह को स्वीकार कर हिंदी में लिखने का प्रयास किया, धन्यवाद. महत्वपूर्ण विचारों को प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास है आपका. आग्रह है कि 'मनुष्य' की वर्तनी सुधार लें. शुभकामनाएं.

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  2. आशा जी, यह कविता पढी नहीं जा रही है, शायद दोबारा टाइप करना पड़े।

    जवाब देंहटाएं
  3. वे मुर्ख ऐसे न,जैसे तुम
    वे ज्ञानी ऐसे,जैसे न तुम
    करें सब कुछ समझ कर
    जांचकर,और कुछ परखकर..

    ये प्रण कर लो मन में
    चल पड़े हम जिस ओर
    न कोई बाधक बने
    न जाने,न समझे...

    विश्वास कठिनाई से हुआ की ये आपकी प्रथम रचना है.....स्वागत....अभिनन्दन....एक बहुत ही परिपक्व ह्रदय की गहराइयों से निकली रचना....

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  4. Bahit sundar
    Eak nek kaam ki apeksha haiअमृताजी को समर्पित करते हुये उनकी सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने के लिये कोई अभियान अवश्य चलायें। पहली पहल करते हुये भारत के राष्ट्रपति और पंजाब सरकार के संस्कृति सचिव को मै इस संदर्भ में एक पत्र अवश्य भेज "एक पहल आप भी अवश्य करें!http://fresh-cartoons.blogspot.com/

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  5. सटीक भाव को समेटे अच्छी रचना ..जिससे सच ही शांति मिलनी है उससे ही इंसान भयभीत रहता है

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  6. सुंदर रचना सटीक वर्णन ..के भाव को उकेरा है आपने .

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