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बुधवार, 5 जून 2013

मैं ही क्यूँ?

कभी उनींदी
कभी जागती
उन ख्वाबो के
सिरहाने में
मैं ही क्यूँ...

कुछ बदलता
कुछ ठहरता
इन मौसमों की
ठिठुरन में
मैं ही क्यूँ..?

11 टिप्‍पणियां:

  1. प्रत्येक व्यक्ति को लगता है दुनिया के सब दुःख दर्द अपने सर मढे हैं। नतिजन सवाल उठता है 'मैं ही क्यों' पर जो है उसमें बेहतर जिंदगी जीना जरूरी होता है बिना शिकायत के। पर कभी-खभार 'मैं ही क्यों' पूछा जाना जरूरी है। हां यह सवाल आस-पास को पूछा जा सकता है पर तकदीरको नहीं।

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  2. विवशता के दंश बताती पंक्तियां, बढ़िया।

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  3. भावमयी सुन्दर पंक्तियां,..

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  4. इस सवाल से शायद हर कोई गुजरता है. बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति.

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  5. सबको यही लगता है की "मैं' ही क्यूँ........वजह साफ़ है 'मैं' है इसीलिए ।

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  6. सुंदर रचना। मैं बस मैं को ही जानता है इसलिए सुख-दुख सब मैं-मय हो जाते हैं। हमें सिर्फ़ अपने घाव दिखते हैं सुंदर-सुंदर कपडों के नीचे दूसरे लोग कितने घाव लेकर जी रहे हैं उसका हमें कतई एहसास नहीं है। सच तो यह है कि अपने सारे घावों के बावजूद हम दूसरों से ज़्यादा खुशनसीब हो सकते हैं।

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  7. क्योंकि इन्सान अपने से इतर कुछ सोच नहीं पाता ... ऐसी भावनाएं अपने साथ हुई किसी भी घटना के साथ उठना स्वाभाविक होता है ... मानव मन के मनोविज्ञान को सोच के लिखी रचना ...

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  8. ....सार्थक संदेश के साथ ....एक ईमानदार कविता

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  9. शानदार,बहुत उम्दा प्रस्तुति,

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  10. शानदार,बहुत उम्दा प्रस्तुति,

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